250+ संस्कृत श्लोक अर्थ सहित | Sanskrit Shlokas With Meaning

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Sanskrit Shlokas With Meaning : दोस्तों इस लेख में हमने के बेहतरीन संस्कृत श्लोक अर्थ सहित लिखे है। संस्कृत भाषा ऋषि-मुनियों की भाषा रही है जो कि आज भी भारत में बोली और पढ़ी जाती है यह भाषा इतनी अच्छी है कि कम शब्दों में यह अधिक बातों का वर्णन कर देती है।

संस्कृत भाषा से ही अन्य भाषाओं का उद्गम हुआ है। यह भाषा ही नहीं है यह अपने आप में पूरे वेदो, शास्त्रों और ब्रह्मांड के संपूर्ण ज्ञान को समेटे हुए है। sanskrit shlok with meaning

आज संस्कृत भाषा विलुप्त होती जा रही है जोकि हमारी भारतीय संस्कृति के लिए अच्छा नहीं है यह भाषा भारत की रीड की हड्डी है इसे उन्हें जीवित करना हमारा लक्ष्य है।

इस भाषा को बोलने से हमारे उच्चारण करने की शक्ति बढ़ती है साथ ही दिमागी रूप से भी लाभ मिलता है इसीलिए हमने विद्यार्थियों एवं बड़ों के लिए 250 से भी अधिक शिक्षाप्रद श्लोक हिंदी अर्थ के साथ लिखे हैं क्योंकि आपको अवश्य पसंद आएंगे।

Sanskrit Shlokas With Meaning
Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi

Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi

(1)

ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

अर्थात् : गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।

(2)

तुलसी श्रीसखि शिवे शुभे पापहारिणी पुण्य दे।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ॥

अर्थात् : हे तुलसी ! तुम लक्ष्मी की सहेली, कल्याणप्रद, पापों का हरण करने वाली तथा पुण्यदात्री हो। नारायण भगवान के मन को प्रिय लगने वाली आपको नमस्कार है। दीपक के प्रकाश को मेरे पापों को दूर करने दो, दीपक के प्रकाश को प्रणाम।

(3)

आदि देव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर:।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तुते ।1।

अर्थात् : हे आदिदेव भास्कर! (सूर्य का एक नाम भास्कर भी है), आपको प्रणाम है, आप मुझ पर प्रसन्न हो, हे दिवाकर! आपको नमस्कार है, हे प्रभाकर! आपको प्रणाम है।

(4)

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

अर्थात् : हे घुमावदार सूंड वाले, विशाल शरीर, करोड़ों सूर्य के समान महान प्रतिभाशाली मेरे प्रभु, हमेशा मेरे सारे कार्य बिना विघ्न के पूरे करें ( करने की कृपा करें)।

(5)

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात॥

अर्थात् : हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान की दूर करने वाला हैं- वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए।

(6)

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते।।

अर्थात् : मैं दीपक के प्रकाश को प्रणाम करता हूं जो शुभता, स्वास्थ्य और समृद्धि लाता है, जो अनैतिक भावनाओं को नष्ट करता है बार-बार दीपक के प्रकाश को प्रणाम करता हूं।

(7)

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्धर्मो यशो बलम्

अर्थात् : जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, कृति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।

छोटे संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

(8)

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद्दुःख भाग्भवेत।।

अर्थात् : सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वरदान दो!

(9)

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥

अर्थात् : इस श्लोक में आचार्य चाणक्य प्रिय वचन बोलने की शिक्षा दे रहे है, हमें हमेशा मीठे और प्रिय वाक्यों को ही बोलना चाहिए क्योंकि इसे सुनकर सभी प्राणी खुश होते हैं इसलिए मीठे वाक्यों को बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए।

(10)

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:॥

अर्थात् : हमें सदा सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये। प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये यही सनातन धर्म है।

(11)

न गृहं गृहमित्याहुः गृहणी गृहमुच्यते।
गृहं हि गृहिणीहीनं अरण्यं सदृशं मतम्।

अर्थात् : जब तक घर में गृहणी नहीं हो वह घर नहीं बल्कि जंगल कहलाता है इसलिए घर में गृहणी का होना आवश्यक होता है।

(12)

वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत:॥

अर्थात् : हमेशा अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि एक सदाचारी व्यक्ति के लिए चरित्र ही सब कुछ होता है, धन तो आता-जाता रहता है। धन के नष्ट हो जाने उसे पुनः अर्जित किया जा सकता है लेकिन चरित्र के नष्ट हो जाने पर उसे पुनः अर्जित नहीं किया जा सकता वह व्यक्ति समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं होता और मरे हुए के समान हो जाता है।

(13)

गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुण्युक्तो दरिद्रो अपि नेश्वरैरगुणेः समः।।

अर्थात् : पुरुषों (मनुष्यों) को गुण प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि निर्धन होते हुए भी गुणवान अच्छा माना जाता है इसके विपरीत धनवान गुणों से रहित है तो वह अच्छा नहीं माना जाता है संसार में यदि हमें सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं तो गुणों का अर्जन करना चाहिए

(14)

दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत्॥

अर्थात् : मनुष्य को दिन में वह कार्य करना चाहिए जिससे वह रात को सुख शांति से सो सकें और जब तक जीवित है तब तक वह कार्य करना चाहिए जिससे मरने के उपरांत भी सुख से रह जा सके

(15)

जरा रूपं हरति, धैर्यमाशा, मॄत्यु: धर्मचर्यामसूया

अर्थात् : वृद्धावस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पहुंचने के बाद मनुष्य की सुंदरता, धैर्य, इच्छा, मृत्यु, धर्म का आचरण, पवित्रता, क्रोध, प्रतिष्ठा, चरित्र, बुरी संगति, लज्जा, काम और अभिमान सब का नाश कर देता है

(16)

सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम्।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम्॥

अर्थात् : यह श्लोक विद्यार्थियों के लिए लिखा गया है इसमें बताया गया है कि सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या जाने वाले को सुख का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या नहीं मिल सकती और विद्या सामने वाले को सुख कहां है

Sanskrit Shlokas – 10 श्लोक संस्कृत में

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(17)

परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।
परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।

अर्थात् : पराया अन्न, पराया धन, दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा, इनकी इच्छा मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए

(18)

अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम्, अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:।
यत् सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात्॥

अर्थात् : संसार में अनेक शास्त्र, वेद है, बहुत जानने को है लेकिन समय बहुत कम है और विद्या बहुत अधिक है। अतः जो सारभूत है उसका ही सेवन करना चाहिए जैसे हंस जल और दूध में से दूध को ग्रहण कर लेता है

(19)

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥

अर्थात् : कोई भी काम कड़ी मेहनत के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है सिर्फ सोचने भर से कार्य नहीं होते है, उनके लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है। कभी भी सोते हुए शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं आ जाता उसे शिकार करना पड़ता है।

(20)

न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥

अर्थात् : किसी को नहीं पता कि कल क्या होगा इसलिए जो भी कार्य करना है आज ही कर ले यही बुद्धिमान इंसान की निशानी है।

(21)

अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥

अर्थात् : आठ गुण मनुष्य को सुशोभित करते है – बुद्धि, अच्छा चरित्र, आत्म-संयम, शास्त्रों का अध्ययन, वीरता, कम बोलना, क्षमता और कृतज्ञता के अनुसार दान।

(22)

आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥

अर्थात् : सभी कीमती रत्नों से कीमती जीवन है जिसका एक क्षण भी वापस नहीं पाया जा सकता है। इसलिए इसे फालतू के कार्यों में खर्च करना बहुत बड़ी गलती है।

(23)

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥

अर्थात् : दुर्जन की मित्रता शुरुआत में बड़ी अच्छी होती है और क्रमशः कम होने वाली होती है। सज्जन व्यक्ति की मित्रता पहले कम और बाद में बढ़ने वाली होती है। इस प्रकार से दिन के पूर्वार्ध और परार्ध में अलग-अलग दिखने वाली छाया के जैसी दुर्जन और सज्जनों व्यक्तियों की मित्रता होती है।

(24)

यमसमो बन्धु: कृत्वा यं नावसीदति।

अर्थात् : मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है, परिश्रम जैसा दूसरा कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता है।

Sanskrit Shloka from Bhagavad Gita

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(25)

भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।
जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गात अपि गरीयसी।।

अर्थात् : भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता है। माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। (इसलिए उनका हमेशा आदर और सम्मान करना चाहिए)

(26)

धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।
मित्राणाम् चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।

अर्थात् : धैर्य, मन पर अंकुश, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, मधुर वाणी और मित्र से द्रोह न करना यह सात चीजें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली होती हैं इसलिए हमेशा जीवन में इनका अनुसरण करना चाहिए

(27)

कवचिद् रुष्टः क्वचित्तुष्टो रुष्टस्तचष्टः क्षणे क्षणे।
अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादो अपि भयंकरः।।

अर्थात् : जो व्यक्ति एक क्षण में नाराज हो जाता है और दूसरे चरण में प्रसन्न हो जाता है इस प्रकार क्षण क्षण में नाराज और प्रसन्न होते रहने वाले व्यक्ति की प्रसन्नता भी भयंकर होती है

(28)

दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय:॥

अर्थात् : यह तीन दुर्लभ है चीजें केवल देवताओं की कृपा से ही प्राप्त होती है – मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों का साथ

(29)

स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।।

अर्थात् : जन्म और मरण संसार का नियम है यह चक्र चलता रहता है लेकिन जन्म लेना उसी का सार्थक है जिसके जन्म से कुल की उन्नति हो

(30)

अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात प्रतिनिवर्तते।
स दत्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति।।

अर्थात् : अतिथि भगवान के समान होता है यदि किसी व्यक्ति के दरवाजे से अतिथि असंतुष्ट होकर चला जाता है तो वह उसके पुण्य ले जाता है और अपने पाप उसे देकर चला जाता है

(31)

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति।।

अर्थात् : इस प्रकार एक पहिए से रथ नहीं चल सकता उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है।

(32)

स्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम।।

अर्थात् : हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है और कान की शोभा शास्त्र सुनने में हैं तो अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।

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(33)

न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु: ।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा ।।

अर्थात् : जन्म से कोई किसी का मित्र या शत्रु नहीं होता है यह आपके व्यवहार से ही शत्रु और मित्र बनते है।

(34)

न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन:।
काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यम न तृप्यति।।

अर्थात् : दुष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों को दूसरों की निंदा किए बिना आनंद नहीं आता है जैसे कौवा सब रसों का भोग करता है परंतु गंदगी भी जाए बिना उससे रहा नहीं जाता है।

(35)

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

अर्थात् : जिन लोगों का हृदय बड़ा होता है उनके लिए पूरी धरती ही उनका परिवार होती है और जिनका हृदय छोटा का होता है उनकी सोच हमेशा अपने, पराए की ही होती है

(36)

शैले शैले न माणिक्यं,मौक्तिम न गजे गजे।
साधवो नहि सर्वत्र,चंदन न वने वने।।

अर्थात् : प्रत्येक पर्वत पर मोती नहीं पाए जाते और प्रत्येक हाथी के सिर पर मोती नहीं होता है। सज्जन लोग सभी जगह नहीं पाए जाते और सभी वनों में चंदन के पेड़ नहीं होते है।

(37)

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।

अर्थात् : मनुष्य को ज्ञान से ही विनम्रता प्रदान होती है, विनम्रता से ही योग्यता आती है और योग्यता से ही धन की प्राप्ति होती है, जिससे व्यक्ति धर्म के कार्य करता है और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करता है

(38)

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥

अर्थात् : चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही किसी भी व्यक्ति का सबसे बड़ा सहारा होता है।

(39)

विवादो धनसम्बन्धो याचनं चातिभाषणम् ।
आदानमग्रतः स्थानं मैत्रीभङ्गस्य हेतवः॥

अर्थात् : वाद-विवाद, धन के लिये सम्बन्ध बनाना, माँगना, अधिक बोलना, ऋण लेना, आगे निकलने की चाह रखना – यह सब मित्रता टूटने का कारण बनते हैं इसलिए हमेशा उनसे दूरी बना कर रखनी चाहिए।

(40)

दुर्जन:स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।
नोदर तृप्तिमायाती मूषक:वस्त्रभक्षक:।।

अर्थात् : जिस प्रकार चूड़ा वस्त्रों को पेट भरने के लिए नहीं काटता है उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव हमेशा दूसरे का कार्य बाधा डालने वाला ही होता है।

छोटे संस्कृत श्लोक easy

(41)

लोके यशः परत्रापि फलमुत्तमदानतः।
भवतीति परिज्ञाय धनं दीनाय दीयताम्।।

अर्थात् : किए गए दान का फल इस लोक में किस के रूप में प्राप्त होता है और मृत्यु के बाद उत्तम लोग की प्राप्ति होती है इसलिए दोनों को अपनी दिनचर्या में शामिल करके नियमित रूप से दान करना चाहिए।

(42)

जीवेषु करुणा चापि मैत्री तेषु विधीयताम् ।

अर्थात् : जीवो पर हमेशा करुणा और दया की भावना रखनी चाहिए और उनसे मित्रता पूर्वक व्यवहार कीजिए

(43)

दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते।।

अर्थात् : बिना दया के किये गये काम में कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता जहां दया नहीं होती। वहां वेद भी अवेद बन जाते है।

(44)

प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।

अर्थात् : संध्या काल में चन्द्रमा दीपक है, प्रभात काल में सूर्य दीपक है, तीनों लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कूल का दीपक है।

(45)

गच्छन् पिपिलिको याति योजनानां शतान्यपि ।
अगच्छन् वैनतेयः पदमेकं न गच्छति ॥

अर्थात् : लगातार चल रही चींटी सैकड़ों योजनों की दूरी तय कर लेती है, परंतु न चल रहा गरुड़ एक कदम आगे नहीं बढ़ पाता है। (इसलिए धीरे ही सही हमेशा काम करते रहना चाहिए आपको सफलता अवश्य मिलेगी)

(46)

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य च॥

अर्थात् : घर से दूर होने पर विद्या मित्र होती है, घर में पत्नी मित्र होती है, रोग में औषधि मित्र होती है और मृत्यु होने पर धर्म मित्र होता है।

(47)

यः पठति लिखति पश्यति, परिपृच्छति पंडितान् उपाश्रयति।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनी, दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥

अर्थात् : जो मनुष्य पढ़ता है, लिखता है, देखता है, प्रश्न पूछता है और बुद्धिमानों का आश्रय लेता है, उसकी बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है जैसे कि सूर्य किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ बढ़ती है।

(48)

न माता शपते पुत्रं न दोषं लभते मही ।
न हिंसां कुरुते साधुः न देवः सृष्टिनाशकः ॥

अर्थात् : एक माँ अपने बच्चे को कभी शाप नहीं देगी, कोई दोष पृथ्वी को कलंकित नहीं करेगा, कुलीन दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, भगवान अपनी रचना को नष्ट नहीं करेगा।

(49)

स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

अर्थात् : एक मूर्ख व्यक्ति अपने ही घर में प्रसिद्ध होता है, अपने ही नगर में प्रभु का पूजा होती है, राजा की अपने ही देश में आदर होता है। लेकिन विद्वान व्यक्ति का सर्वत्र सम्मान होता है।

(50)

महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
धियो विश्वा वि राजति।।

अर्थात् : हे मां सरस्वती देवी, अपने इस विशाल सागर से आप हम सभी को ज्ञान प्रदान कर रही है। कृपा करके इस पूरे संसार को अपार बुद्धि से सुशोभित करें।

(51)

नमन्ति फलिनो वृक्षा:,नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्कवृक्षाश्च मूर्खाश्च न नमन्ति कदाचन।।

अर्थात् : फल से भरा हुआ वृक्ष हमेशा धरती को नमन करता है अर्थात वह फल लगने के बाद भी पकड़ता नहीं सदैव झुका रहता है, ठीक उसी तरह गुणी मनुष्य भी सभी के साथ नम्रता से व्यवहार करता है। किन्तु मुर्ख मनुष्य सुखी लकड़ी की तरह होता है ( जैसे सुखी लकड़ी झुक नहीं सकती वह अक्कड़ी रहती है ) जो किसी के आगे नहीं झुकती मुर्ख मनुष्य भी वैसे होते है, ऐसे मुर्ख मनुष्यो से हमेशा दूर रहना चाहिये।

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12 thoughts on “250+ संस्कृत श्लोक अर्थ सहित | Sanskrit Shlokas With Meaning”

  1. संस्कृत श्लोकों के माध्यम से प्राचीन ज्ञान को साझा करने के लिए आपका समर्पण सराहनीय है। आपके प्रयास कई लोगों को हमारी विरासत की गहन शिक्षाओं से जुड़ने के लिए प्रेरित करेंगे। ज्ञान फैलाने की आपकी यात्रा के लिए शुभकामनाएं।

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  2. श्रीमन,
    मैं एक श्लोक ढूंढ रहा हूं जिसका भावार्थ निम्न था..
    “जवानी – तू धन्य है…जिसमे गधी भी सुंदर स्त्री के समान दिखाई पड़ती है!!”
    इस श्लोक में एक शब्दावली है, “गर्दभी अपि षोडशी इव प्रतिभाति”
    कृपया इस श्लोक को ढूंढने में मेरी सहायता करें।
    धन्यवाद….

    Reply
  3. धन्यवाद,,, आप ने बहुत ही प्रेरणादायक श्लोको का संग्रह किया है, हम आप के बहुत आभारी है जो की आप सनातन संस्कृति को समझा और लोगो के साथ श्लोक को शेयर किया– धन्यवाद

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