Delhi ka lal kila History in Hindi : ये सिर्फ लाल पत्थर से बनी कोई इमारत नही है, इसका बनना इतिहास में एक बड़ी घटना थी. और इसने अपने निर्माण से लेकर बनने तक ऐसी- ऐसी घटनाओं को देखा है, जिन्होंने इतिहास का रुख बदल दिया, ये है
दिल्ली का लाल किला दिल्ली का वो हिस्सा जिसे पुरानी दिल्ली कहा जाता है, वही पर यमुना नदी के किनारे पर दिल्ली का लाल किला स्थित है.
Delhi ka lal kila History in Hindi
किले का निर्माण | 1639 ई. |
किले की निर्माण समाप्ति | 1647 ई. |
किले को बनवाने वाले का नाम | बादशाह शाहजहाँ |
स्थान | दिल्ली |
किले का रंग | लाल |
किले की दीवार की ऊंचाई | 110 फुट |
किले की दीवार की ऊंचाई (यमुना नदी की और) | 60 फुट |
विषय-सूची
दिल्ली के लाल किले का इतिहास (Delhi ka Lal Kila History in Hindi)
1627 ई. में शाहजहाँ ने जब बादशाह बने तो उन्हें बड़ी-बड़ी इमारते बनवाने को शोख था, बादशाह की राजधानी आगरा (लाल किला) में थी. लेकिन वहा पर गर्मी बहुत थी इस कारण उन्होंने तय किया की अब मुग़ल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली होगी. काफी सोच विचार के बाद ताल कटोरा बाग और रायसीना पहाड़ी का चुनाव नये शहर के लिया किया गया,
लेकिन बादशाह के दो नामी कारीगर उस्ताद हमीद और उस्ताद अहमद ने यमुना के किनारे खुले मैदान को किले के निर्माण के लिए बिलकुल सही बताया था.
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1639 ई. में लाल किले का निर्माण शुरु किया गया 9 सालो के बाद लाल किला बनकर तैयार हुआ और इसी किले के सामने शहर “शाहजहाँनाबाद” बसाया गया जिससे अब दिल्ली के नाम से जाना जाता है लाल किले की दीवारे यमुना की और से 60 फुट ऊँची है और सामने की दीवार 110 फुट ऊँची है इसमे 75 फुट दीवार खंद्र की सतह से ऊपर है और बाकि खंद्र की सतह तक है.
किले के पीछे से यमुना नदी बहती है. लाल के पास ही एक और किला बना हुआ है जिसे सलीमगढ़ किला कहते है ये दोनों किले आपस में एक पुल से जुड़े हुए है. सलीमगढ़ के किले का निर्माण शेरशाह सूरी के बेटे सलीम शाह सूरी ने 1546 ई. में बनवाया था. सलीमगढ़ किले का इस्तेमाल शाही केद खाने (जेल) के रूप में किया जाता था.
लाल किले की दीवार का निर्माण ओरंगजेब ने करवाया था, किले को बचाने के लिए यह दीवार बनाई गयी जिससे बाद में घुंघट वाली दीवार कहा जाने लगा. शाहजहाँ जब आगार के किले में कैद थे तब उन्होंने ओरंगजेब को लिखा था की किले की दीवार बनवाकर मानो किले की दुल्हन के चहरे पर तुमने नकाब डाल दिया है.
किले के दक्षिण में दिल्ली दरवाजा है जो जामा मस्जिद की तरफ है बादशाह इसी दरवाजे से नमाज पढने जाया करते थे. 1903 ई. में लार्ड कर्जन ने इस दरवाजे के दोनों और पत्थर के हाथी खड़े करवा दिए.
किले में प्रवेश करने के लिए पांच दरवाजे थे. उनमे से मुख्य दरवाजा “लाहोरी दरवाजा” था यह दरवाजा चांदनी चोंक की तरफ खुलता है, लाहोरी दरवाजे से प्रवेश करते ही छता बाजार चालू हो जाता है इस छत्ते के दोनों और दुकाने है और बीच में एक चोंक है.
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लाहौरी दरवाजा (Lahori Darwaza)
लाल किले का मुख्य प्रवेश लाहौरी दरवाजे से ही होता है, जिसके द्वारा किले के शाही महलो तक एक छतादार मार्ग के जरिए पहुचा जाता है, इस रास्ते के दोनों तरफ मेहराबदार कमरे है, जिन्हें छता बाजार या मीना बाजार के नाम से जाना जाता है.
पश्चिम दिशा में स्थित लाहौर (पाकिस्तान) की तरफ होने के कारण इसे लाहौरी दरवाजा कहा जाता है.
यह तीन मंजिला भव्य दरवाजा वर्गाकार, आयताकार एंव लहरदार मेहराब युक्त पटलो से बना है, और इसके छत पर दोनों तरफ खुले अष्टपहलू बुर्ज है. इन दोनों बुर्जो के बीच में छोटे छतरीयुक्त आवरण है जिनके उपर संगमरमर के सात छोटे गुम्बद सुसज्जित है.
दरवाजे पर लपटों के आकर की मुंडेर बेहद प्रभावी है. शाहजहाँ के पुत्र ओरंगजेब (1658-1707 ई.) में दरवाजे के सामने एक सुरक्षा दिवार बनवाई जिससे किले में प्रवेश का प्रावधान उतर दिशा की तरफ से हो गया.
नौबतखाना (Nobat Khana)
लाहोरी दरवाजे के छत्ते के बाद एक दो मंजिला इमारत आती है जिसे “नक्कारखाना” कहा जाता है नक्कारखाने के दरवाजे तो हथिया पोल कहते है
क्योंकी इसके दोनों तरफ पत्थर के हाथी की मुर्तिया लगी हुई है. इस दरवाजे से आगे किसी को भी अपनी सवारी में बैठ कर जाने की इजाजत नही थी सिवाय शाही परिवार के सदस्यों को छोड़ कर. नक्कारखाने में हर रोज पांच बार नोबत बजती थी.
इतवार (रविवार) और बादशाह के जन्मदिन पर पुरे दिन नोबत बजाई जाती थी. नक्कारखाने का बरामदा 70 फुट चोड़ा और 46 फुट ऊँचा है इसके चारो कोनो पर छत्रिया है. इसी नक्कारखाने में मुग़ल बादशाह जहांदार शाह और फरूखसियर का कत्ल किया गया था. नक्कारखाने के सामने दीवान-ए-आम बना हुआ.
दीवान-ए-आम (Diwan-i-Am)
शाहजहाँ ने दीवान-ए-आम को 1628-58 ई. में बनवाया था, यहाँ पर वे आम जनता से मुलाकात एंव उनकी शिकायते सुनते थे. दीवान-ए-आम के बरामदे की लम्बाई 80 फुट और चोड़ाई 40 फूट है, छत की ऊंचाई 30 फुट है.
इसको बनाने के लिए लाल पत्थर काम में लिया गया है. दीवान-ए-आम में सात-सात खम्बो की तीन कतारे है हर एक दर में चार-चार खम्बे छ:-छ: फुट के अंतर पर है. बरामदे के आगे 10 बड़े खम्बे है.
दीवान-ए-आम सामने की और आंगन है और चारो तरफ छत्तादार कक्ष बने हुए है, जिनको मुखिया (उमराओ) के कार्य करने के काम में लिया जाता है. दीवान-ए-आम की पीछे की दीवार के बीच में 21 फुट चोड़े संगमरमर के पत्थर पर बेहद खूबसूरत कारीगरी की हई है.
पश्चिमी दिवार के मध्य में संगमरमर का चबूतरा है जो बंगाल शैली की छतरी से ढका हुआ है, जिसके नीचे बादशाह का सिहांसन था. यही 8 फुट ऊंचाई पर बादशाह के सिहांसन की जगह है. जब कभी कोई फरियाद लेके आता था तो बादशाह यही बैठते थे.
उनके सिहांसन के नीचे एक संगमरमर का तख्त है जो 3 फुट ऊँचा 7 फुट लम्बा और 4 फुट चोड़ा है. इसी तख्त पर खड़े होकर वजीर बादशाह से निवेदन करते या फिर कोई अर्जी पेश करते थे.
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दीवान-ए-आम में खास मोंको पर तख़्त-ए-ताऊस लाया जाता था जिस पर बादशाह बैठते थे. दीवान-ए-आम के उतर में एक दरवाजा था जिसे लाल पर्दा कहते थे.
वहा से नदी की दीवार की और दीवान-ए-खास, हमाम, मोती मस्जिद और बादशाह के निजी मकान थे. यही से रंग महल और जनान खाने को भी रास्ता जाता है. इसी के उतर की और हयात बख्श बाग था जिसका अब कोई नामोनिशान नही है.
दीवान-ए-खास (Diwan-i-khaas)
दीवान-ए-खास की इमारत संगमरमर की बनी हुई है, इसके बरामदे की लम्बाई 90 फुट और चोड़ाई 67 फूट है, छत की ऊंचाई 30 फुट है. इसकी छत चाँदी की हुआ करती थी. चारो कोनो पर छत्रिया बनी हुई है.
दीवान-ए-खास के बीचो बीच एक नहर बहा करती थी जिसे “नहर-ए-बहिश्त” कहते थे. बरामदे के अंदर एक कमरा है जो की 48 फुट लम्बा और 27 फुट चोड़ा है. इसी के अंदर संगमरमर का वो चबूतरा है
जिस पर तख़्त-ए-ताऊस था. इसी दीवान-ए-खास में एक बहुत ही खुबसूरत शायरी लिखी हुई जो इस पारकर है – “गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त” जिसका मतलब है अगर पृथ्वी पर कही स्वर्ग है तो वो यही है यही है यही है.
दीवान-ए-खास वो जगह जहा मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह से नादिर शाह (ईरान का राजा) मिला. नादिर शाह ने दिल्ली को लुटा, तख़्त-ए-ताऊस और बादशाह की पगड़ी में लगा कोहिनूर हीरा भी चुरा ले गया. यही जनवरी 1858 में आखरी मुग़ल बादशाह “बहादुर शाह जफर” पर मुकदमा चलाने का अंग्रेजो ने ढोंग किया था. दीवान-ए-खास से उत्तर की और शाही हम्माम है.
शाही हम्माम (स्नान घर) – Shahi Hammam
शाही हम्माम में तीन बड़े कमरे है जिनमे नहाने के लिए होद बनायीं हुई है. इस हम्माम की दीवारों और फर्शको कीमती रंगीन पत्थरों से सजाया गया है. ठंडे और गर्म पानी के लिए भी व्यवस्था थी.
हम्माम में पानी की पूर्ति के लिए नहर बांयी गयी थी. इतिहासकारो के अनुसार पानी को गर्म करने के लिए सवासो मण लकड़िया जलाई जाती थी.
हीरा महल (Heera Mahal)
शाही हम्माम से उत्तर की और बनी इमारत और हीरा महल कहते है जिसे बादशाह बहादुर शाह जफर ने 1824 ई. में बनवाया था. नहर-ए-बहिश्त जो उत्तर से दक्षिण की और बहती हुई दीवान-ए-खास तक जाती है.
मोती मस्जिद (Motee Masjid)
लाल किले में ओरंगजेब ने मोती मस्जिद का निर्माण करवाया था, जो संगमरमर की बनी बेहद खुबसूरत इमारत है, इसमे सिर्फ बादशाह और उनकी बेगम ही नमाज पढ़ सकती थी. मस्जिद में प्रवेश करने के लिए पीतल का दरवाजा लगाया गया है मस्जिद के उपर तीन गुम्बद बनाए गये है.
जफ़र महल (Jafar Mahal)
जफ़र महल का निर्माण 1842 में बहादुरशाह जफ़र ने करवाया था इसे लाल पत्थर से बनवाया गया है. यह महताब बाग के होद के बीचो बीच है इसमे आने जाने के लिए एक पुल भी था. 1857 के बाद इस होद को फोजियो के तेरने लिए बना दिया गया.
दीवान-ए-खास के दक्षिण में संगमरमर से बने खास महल के बीच से नहर बहती थी तस्बीर खाना, ख्वाबगाह और बड़ी बैठक इस संगमरमर महल की तीन तस्वीरे है
तस्बीर खाना में बादशाह इबाब्त करते थे और एकांत के लिए यहाँ आते थे. इसके दीवार के बीच में संगमरमर का तराजू है जिस पर लिखा है मीजाने अदल (न्याय का तराजू).
रंग महल (Rang Mahal)
दीवान-ए-आम के ठीक पीछे रंग महल है इसका बरामदा बहुत चोड़ा है यह बरामदा पांच हिस्सों में बटा हुआ है नहर-ए-बहिश्त इसके बीच से बहती थी जो इससे ठंडा रखती थी.
इस महल की छत चाँदी की थी जिसे हटाकर ताम्बे की लगा दी गयी थी और बाद में ताम्बे की छत को भी हटा कर लकड़ी की सिंदूरी रंग की छत लगा दी गयी. अंग्रजो ने इसे रसोई के रूप में काम में लिया था.
मुमताज महल (Mumtaz Mahal)
मुमताज महल सबसे बड़े खुबसूरत महलो में से एक था. जिसकी छत के चारो कोनो सोने की छत्रिया थी. 1857 के बाद इसे कैद खाने में बदल दिया गया. अब इसको भारत सरकार ने संग्रहालय बना दिया है.
मुसम्मन बुर्ज (Musamman Burj)
ख्वाबगाह के उत्तर की और गुम्बद वाला बरामदा है यह आठ कोनो वाला कमरा है जिसके ऊपर गुम्बद है इसी की नीचे यमुना की और और निकलने वाला दरियाई दरवाजा है जिससे बादशाह शाहजहाँ ने पहली बार लाल किले में प्रवेश किया था.
यही झरोखे से बादशाह जनता को दर्शन दिया करते थे. यही से आखरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने सामने के मैदान में खड़ी क्रांतिकारीओ की फोज से बात की थी.
पुराना मुसम्मन बुर्ज अब नहीं है इसको फिर से 1857 में बनाया गया था. पुराने बुर्ज पर सोने का पत्र चढ़ा था.
असद बुर्ज (Asad Burj)
मुमताज महल के सामने दक्षिण में बहुत बड़ी इमारत असद बुर्ज कहलाती है. 1803 के एक हमले में इस बुर्ज को बहुत नुकसान हुआ था. बाद में इसको अकबर साहनी ने इसको ठीक करवा दिया था.
शाह बुर्ज (Shahi Burj)
शाह बुर्ज किले के तीन मुख्य बुर्जो में से एक है. यह उत्तर-पूर्व के कोने पर है, पहले यह तीन मंजिला था लेकिन इसका गुम्बद 1803 की क्रांति में टूट गया. किले में हर जगह पानी जाने के लिए खिड़किया इसी बुर्ज में है.
हयात बख्श बाग (Hayaat Bakhsh Bagh)
हयात बक्स बाग के मैदान में दो इमारते बनी हुई है जिनमे एक का नाम “सावन मंडप” और दूसरी का “भादो मंडप” है यह दोनों ईमारत संगमरमर के पत्थर से बनी हुई है,
इन दोनों इमारतो की बनावट और सजावट एक जैसी है. पानी गिरने से इनमे से जो आवाज आती थी वो बारिश जैसी लगती थी.
तख़्त-ए-ताऊस (Takht-e-Tawas)
तख़्त-ए-ताऊस हीरे जवाहरात से जड़ा सिहांसन था जिसमे ठोस सोने के छ: पिल्लर थे. इसमे जवाहरात, मोतियों और नीलम से जड़े दो मोर थे. तख़्त-ए-ताऊस की कीमत का अंदाजा 17वीं सदी में भी करोड़ो रूपये में लगाया गया था.
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